राज्य प्रवक्ता
उत्तराखंड के पहाडी क्षेत्रों में आपदाएं ऑल वेदर रोड, विद्युत परियोजनाओ और अनियोजित निर्माण के चलते असुरक्षित क्षेत्र में है, यहां जीवन यापन करना तलवार की धार पर चलना जैसा हो गया है। अब तक की बारिश पर नजर डाले तो इस बार के हादसे सड़क किनारे बसे लोगों के साथ हुए। गौरीकुंड, डोईवाला में जो जाने गई वह भी सड़क ने ही ली है।
ऑलवेदर रोड निर्माण के लिए कच्ची चट्टानों को जेसीबी व अन्य मशीनों से गहरे घाव दिए गए। अब नौबत ये हैं कि चट्टाने बेहद कमजोर हो गई है और बारिश आते ही वे नीचे खिसक जाती हैं। किस पत्थर पर किसकी मौत लिखी ये नामालूम है लेकिन इतना तय है कि चटृटान का हर पत्थर जान लेने पर आमादा है। कितना भी संभले लेकिन संभलना मुश्किल है। बदरीनाथ हाईवे, केदारनाथ हाईवे, यमुनोत्री और केदारनाथ एक भी डगर आसान नहीं है। ऑलवेदर को लेकर बड़े-बड़े सपने दिखाए गए। यात्रा साल भर चलेगी, घंटों का सफर मिनटों में होगा। सभी प्रकार के मौसम में सड़क खुली रहेगी। ऑलवेदर के ठेकेदार तो नोटों के कुछ बंडल देके और कुछ ले के चले गए लेकिन अब पहाड़ों में जिंदगियां खिसक रही हैं। उसका क्या।
इधर राज्य आपदा प्राधिकरण की कार्य प्रणाली सवालों के कटघरे में है। आपदा पूर्व तैयारियां का कंसेप्ट फेल हो चुका। आपदा पूर्व की समस्त तैयारियां फ्लाप शो साबित हुई है। राज्य जिलों में सिर्फ प्रशिक्षण और सर्वे इत्यादि का खर्चा देखे तो उतने में आधे उत्तराखंड को कई सवाल तक मलाई मक्खन के साथ रोटी मिन जाए लेकिन इन प्रशिक्षणों का मुर्गी भात पूरे राज्य पर भारी पड़ रहा है। डिजास्टर मैनेजमेंट क्या सिर्फ लाशें तलाश करने के लिए है। जब आधी रात को कई लोग मलबे में जब जाए तो उस पूरे इलाके का दर्द का अंदाजा नहीं लगाया जा सकता। राज्य में चल रहे आपदा प्रबंध को लेकर जो कुछ चल रहा है उसका हिसाब जरूर लिया जाना चाहिए। गंजे सिरों पर तेल चमकाने के लिए गरीब उत्तराखंड के लोगों के खून पसीने का पैसा नहीं है। फिलवक्त तोता घाटी, डाबरकोट, सिरौबगड, समेत अन्य जगहों पर लगातार मलबा आने से सड़के लगातार बंद और खुल रही हैं। ऑलवेदर पर चलते वक्त बेहद सर्तकता की जरूरत है। यहां न जाने कितनी जाने चट्टानों से गिरे पत्थरों के नीचे पिचक कर चली गई। सड़क सुरक्षित नहीं है इसलिए घर से दिन-बार निकालकर चलना जरूरी है।